मंज़िल पर पहचान की ख़ुशी से ज़्यादा, सफ़र का आनंद था
जब तक ये समझ पाता, मैं मंज़िल के पड़ाव पर था।
कितने साल बीत गए इस सफ़र में, या पूछूँ कितने लोग पीछे रह गए,
मुड़ कर देखना चाहता हूँ, लेकिन यादों की डोर भी अब तो टूट गए।
सोचा था ख़यालों में, कैसा लगेगा जब पहुँचूँगा मुक़ाम पर,
सब तो वैसा का वैसा ही है, बस नज़रिया बदल गया है ज़माने का।
आँखें लगाए अगले आसमान पर, नए सपने साँझे हैं,
पहुँचूँगा ज़रूर नई मंज़िल पर, भले ही बादल भरे हों पानी से।
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